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उड़ती छींटें / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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कम नहीं है किसी कसाई से।
जो गला और का रहे कसते।
किस तरह जान बच सके उनसे।
जो कि हैं साँप की तरह डँसते।1।

वे करेंगे न लाल किसका मुँह।
जो सदा मारते रहे चाँटे।
वे चुभेंगे भला नहीं कैसे।
राह के जो बने रहे काँटे।2।

छीलती जो रहें कलेजों को।
क्यों लिखी जायँगी न वे सतरें।
है कतर ब्योंत ही जिन्हें प्यारा।
क्यों किसी का न कान वे कतरें।3।

वे भला क्यों न नोच खाएँगे।
खुल गये आँख टूटते जो हैं।
क्यों सकें देख और का दुख वे।
मूँद कर आँख लूटते जो हैं।4।

दिन बहुत ही उसे डराता है।
क्यों न बोली डरावनी बोले।
है अँधेरा पसंद उल्लू को।
किसलिए रात में न पर खोले।5।

है उन्हें फूट ही बहुत प्यारा।
क्यों न फट जाय पेट ककड़ी सा।
है जिन्हें मक्खियाँ फँसाना वे।
क्यों बुनेंगे न जाल मकड़ी सा।6।

क्यों न मर जाय या जिये कोई।
पेट अपना उन्हें तो भरना है।
तब चलें क्यों न चाल बगलों सी।
जब किसी का शिकार करना है।7।

क्यों चलें भाग वे न खरहों सा।
जो कहीं पर छिपे पड़े होंगे।
चौंकते बात बात में हैं जो।
कान उनके न क्यों खड़े होंगे।8।

कूदते फाँदते उछलते हैं।
कर खुटाई बहुत सटकते हैं।
मार उन पर न क्यों पड़ेगी जो।
बन्दरों की तरह मटकते हैं।9।

निज फटे पेट को दिखा करके।
लोग मिलते जहाँ तहाँ रोते।
तो किसे छोड़ते बिना मारे।
जो गधो सींग पा गये होते।10।

क्यों लगे हों न ढेर रत्नों के।
मानते जायँगे उन्हें ढूहे।
मोल वे जान ही नहीं सकते।
जो बिलों के बने रहे चूहे।11।

चापलूसी बुरी कचाई है।
हैं बुरे सब दिये गये बुत्तो।
पूँछ अपनी हिला हिला करके।
पेट पालें न पेट के कुत्तो।12।