भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उडीक / ओम नागर
Kavita Kosh से
सूरज उग
ढळग्यों/आंथग्यो
जाणै कतनी बेर।
पोवणी की नांई
तपबा लाग’गी धरणी
जेठ की भरा-भर दुपैरी मं
भर्रणाया बादळां की नांई
जी गैल पै
रूस’र चली’गी छी तू।
ऊं गैल पै
मन की रीती छांगळ ल्यां
ऊंभौ छूं हाल बी
थंई उडीकता।