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उतना कवि तो कोई भी नहीं / सुदीप बनर्जी
Kavita Kosh से
उतना कवि तो कोई भी नहीं
जितनी व्यापक दुनिया
जितने अंतर्मन के प्रसंग
आहत करती शब्दावलियां फिर भी
उंगलियों को दुखा कर शरीक हो जातीं
दुर्दांत भाषा के लिजलिजे शोर में
अंग प्रत्यंग अब शोक में डूबे
चुपचाप अपने हाड़ मांस रूधिर में आसीन
उंगलियां पर मानती नहीं अपनी औकात
उतना कवि तो बिल्कुल ही नहीं
कि उठ खड़ा होता पूरे शरीर से
नापता तीन कदमों से धरती और आसमान
सिर पर पैर रखता समय के