भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उतर गया है पानी में / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
बढ़ते-बढ़ते उतर गया है -
छाती तक पानी में।
अचरज नहीं, तट की बजाय
विगत ग़लतियाँ याद आने लगें।
मंथर गति से हलकोरते
गहरे उतरते पानी में -
गूँजता है घमासान पुरानी हिंसाओं का
खोपड़ी में।
अब तक बाहर बची एक तिहाई देह में
दहाड़ते हैं प्राचीन दुःख।
चारों ओर अपरिमित जल है आँसू नहीं है।
कहाँ से आ रही है वंशी की पुरानी टेर?
मुड़ते ही जो हो गया पत्थर -
क्या कहेगा जल?
और दावानल?
अक्षुण्ण अग्नि की लपलपाती शाखाओं को
धारण किए -
बढ़ते बढ़ते उतर गया है
छाती तक पानी में।