उत्तर काण्ड / भाग 10 / रामचंद्रिका / केशवदास
सुंदरी छंद
शत्रुघ्न- बालक छाँड़ि दे छाँड़ि तुरंगम।
तोसों कहा करौं सगर-सगम।।
ऊपर वीर हिये करुना रस।
वीरहि विप्र हते न कहुँ यश।।190।।
तारक छंद
लव- कछु बात बड़ी न कहो मुख थरे।
लव सौं न जुगै लवणासुर भोरे।।
द्विजदोषन ही बल ताकौ सँहारयो।
मरिही जो रह्यो, सो कहा तुम मारयो।।191।।
चामर छंद
रामबंधु बान तीनि छोड़ियो त्रिसूल से।
भाल में विशाल ताहि लागियो ते फूल से।।
लव- घात कीन राजतात गात तैं कि पूजियो।
कौन शत्रु तैं हत्यौ जो नाम शत्रुहा लियो।।192।।
निशिपालिका छंद
रोष करि बाण बहु भाँति लव छंडियो।
एक ध्वज सूत युग तीनि रथ खंडियो।।
शस्त्र दशरत्थ सुत अस्त्र कर जो धरै।
ताहि सियपुत्र तिल तूल सम खडरै।।193।।
तारक छंद
रिपुहा तब बाण वहै कर लीन्हो।
लवणासुर को रघुनंदन दीन्हो।।
लव के उर में उरभयो वह पत्री (बाण)।
मुरझाइ गिरयो धरणी महँ छत्री।।194।।
मोटनक छंद
मोहे लव भूमि परे जबहीं।
जय दुंदुभि बाजि उठे तबहीं।।
भुव ते रथ ऊपर आनि धरे।
शत्रुघ्न सों यौं करुणानि भरे।।195।।
घोड़ो तबहीं तिन छोरि लयो।
शत्रुघ्नहिं आनँद चित्त भयो।।
लैकै लव को ते चले जबहीं।
सीता पहँ बाल गये तबहीं।।196।।
झूलना छंद
बालक-
सुनु मैथिली नृप एक को लव बाँधियों वर बालि।
चतुरंग सैन भगाइकै तब जीतियो वह आजि।।
उर लागि गौ शर एक को भुव मैं गिरयो मुरझाइ।
वह बालि लै लव लै चल्यो नृप दुंदुभीन बजाइ।।197।।
(दोहा) सीता गीता पुत्र की, सुनि सुनि भई अचेत।
मनौ चित्र की पुत्रिका, मन क्रम वचन समेत।।198।।
झूलना छंद
सीता- रिपु हाथ श्रीरघुनाथ को सुत क्यौं परैं करतार।
पति देवता सब काल तौ लव जी उठै यहि बार।।
ऋषि हैं नहीं, कुश है नहीं, लव लेइ कौन छड़ाइ।
बन माँझ टेर सुनी जहीं कुश आइयो अकुलाइ।।199।।
कुश- (दोहा) रिपुहि मारि सँहारि दल, यम ते लेउँ छुड़ाइ।
लवहि मिलैंहौं देखिहौं, माता तेरे पाइँ।।200।।
सवैया
गाहियो सिंधु सरोवर सो जेहि बालि बली बर (बट वृक्ष) सो बर (बल से) पैरयो।
ढाहि दिये शिर रावण के गिरि से गुरु जात न जानत हेरयो।।
शूल समूल उखारि लियो लवणासुर पीछे ते आइ सो टेरयो।
राघव को दल मत्त करी सुर (ललकार; टेर) अंकुश दै कुश केशव फेरयो।।201।।
(दोहा) कुश की टेर सुनी जहाँ, फूलि फिरे शत्रुघ्न।
दीप विलोकि पतंग ज्यों, तदपि भयो बहु विघ्न।।202।।
मनोरमा छंद
रघुनंदन कौ अवलोकतहीं कुश।
उर माँझ हयो शर शुद्ध निरंकुश।।
ते गिरे रथ ऊपर लागतहीं शर।
गिरि ऊपर ज्यों गजराज कलेचर।।203।।
सुंदरी छंद
जूझि गिरे जबहीं अरिहा रन।
भाजि गये तबहीं भट के गन।।
काढ़ि लियो जबहीं लव को शर।
कंठ लग्यौ तबहीं उठि सोदर।।204।।
(दोहा) मिले जों कुश लव कुशल सों, वाजि बाँधि तरुमूल।
रणमहि ठाढ़े शोभिजैं, पशुपति गणपति तूल।।205।।
रूपमाला छंद
यज्ञमंडल मैं हुते रघुनाथ जू तेहि काल।
चर्म अंग कुरंग को शुभ स्वर्ण की सँग बाल।।
आस पास ऋषीश शोभित सूर सोदर साथ।
आइ भग्गुल (भगेड़) लोग बरणे युद्ध की सब गाथ।।206।।
स्वागता छंद
भग्गुल वालमीकि थल वाजि गयेा जू।
विप्र बालकन घेरि लयो जू।।
एक बाँचि पट घोटक बाँध्यो।
दौरि दीह धनुसायक साँध्यो।।207।।
भाँति भाँति सब सैन सँहारयो।
आपु हाथ जनु ईश सँवारयो।।
अस्त्र शस्त्र तब बंधु जो धारयो।।208।।
रोष वेष वह बाण लयो जू।
इंद्रजीत लगि आपु दयो जू।।
काल रूप उर माँह हयो जू।
वीर मूर्छि तब भूमि भयो जू।।209।।
तोमर छंद
यह वीर लै अरु बाजि। जबहींचल्यो दल साजि।।
तब और बालक आनि। मग रोकियौ तजि कानि।।210।।