भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उत्तर काण्ड / भाग 12 / रामचंद्रिका / केशवदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बालक जानि तजैं करूणा करि।
वे अति ढठ भये दल संहरि।।
केहुँ न भाजत गाजत हैं रण।
बीर अनाथ भये बिन लक्ष्मण।।232।।
जानहु जै (जिन, मत) उनको मुनिबालक।
वे कोउ हैं जगती-प्रतिपालक।।
हैं कोउ रावण के कि सहायक।
कै लवणासुर के हित लायक।।233।।

भरत- बालक रावण के न सहायक।
ना लवणासुर के हित लायक।।
हैं निज पातक-वृक्षन के फल।
मोहत हैं रघुवंशिन के बल।।234।।
जीतहि को रणमाँझ रिपुघ्नहि।
को करै लक्ष्मण के बल विघ्नहि।।
लक्ष्मण सीय तजी जब से बन।
लोक आलोकन पूरि रहे तन।।235।।
छोड़ोइ चाहत ते तब ते तन।
पाइ निमित्त करेउ मन पावन।।
शत्रुघ्न तज्यो तन सोदर लाजनि।
पूत भये तजि पाप समाजनि।।236।।

दोधक छंद

पातक कौन तजी तुम सीता।
पावन होत सुने जग गीता।।
दोष विहीनहिं दोष लगावै।
सो प्रभु ये फल काहे न पावै।।237।।
हमहूँ तेहि तीरथ जाइ मरैंगे।
सतसंगति दोष अशेष रहैंगे।।
वानर राक्षस ऋच्छ तिहारे।
गर्व चढ़े रघुवंशहि भारे।।
तालगि कै यह बात विचारी।
हौ प्रभु संतन गर्व-प्रहारी।।238।।

चंचरी छंद

क्रोध कै अति भरत अंगद संग संग को चले।
जामवंत चले बिभीषण और बीर भले भले।।
को गनै चतुरंग सेनहिं रोदसी (भूमि और आकाश) नृपति (राजाओं के समूह) भरी।
जाइकै अवलोकियो रण मैं गिरे गिरि से करी।।239।।

लव भरत युद्ध

रूपमाला छंद

जामवंत विलोकि कै रण भीमभू्र हनुमंत।
श्रोण की सरिता बही सुअनंत रूप दुरंत।।
यत्र तत्र ध्वजा पताका दोह दोहनि भूप।
टूटि टूटि परे मनौ बहु बात वृक्ष अनूप।।240।।
पुंज कुंजर सुभ्र स्यंदन सोमिजै सुठि सूर।
ठेलि ठेलि चले गिरीसनि पेलि सोनित पूर।।
ग्राहतुंग तुरंग कच्छप चारु चर्म विसाल।
चक्र से रथचक्र पैरत गृद्ध वृद्ध मराल।।241।।
केकरे कर बाहु मीन गयंद सुंड भुजग।
चीर चौर सुदेस केस सिबाल जानि सुरंग।।
बालुका बहु भाँति हैं मनिमाल जाल प्रकास।
पैरि पार भये ते द्वै मुनिबाल केसवदास।।242।।
(दोहा) नामबरण लघु वेष लघु, कहत रीझि हनुमंत।
इतो बड़ो विक्रम कियो, जीते युद्ध अनंत।।243।।
भरत- हनुमंत दुरंत नदी अब नाषौ।
रघुनाथ सहोदर जी अभिलाषौ।।
तब जो तुम सिंधुहि नाँघि गए जू।
अब नाँघहु काहे न भीत भये जू।।244।।
हनुमान- (दोहा) सीतापद सम्मुख हुते, गये सिंधु के पार।
विमुख भये क्यौं जाहुँ तरि, सुनौ भरत यहि बार।।245।।

तारक छंद

धनु बान लिये मुनिबालक आये।
जनु मन्मथ के युग रूप सुहाये।।
करिबे कहँ सूरन के मद हीने।
रघुनायक मानहुँ द्वै बपु कीने।।246।।
भरत- मुनिबालक हौ तुम यज्ञ करावौ।
सु किधौं बर बाजिहिं बाँधन घावौ।।
अपराध क्षमौ सब आशिष दीजै।
बर बाजि तजौ, जिय रोष न कीजै।।247।।
(दोहा) बाँध्यौ पट्ट जो शीश यह, क्षत्रिन काज प्रकास।
रोष करेउ बिन काज तुम, हम विप्रन के दास।।248।।

दोधक छंद

कुश- बालक वृद्ध कहौ तुम काकों।
देहनि कौ, किघौं जीवप्रभा कों।।
है जड़ देह, कहै सब कोई।
जीव, सो बालक वृद्ध न होई।।249।।
जीव जरै न मरै नहीं छीजै।
ताकहँ सोक कहा करि कीजै।।
जीवहिं विप्र न क्षत्रिय जानौ।
केवल ब्रह्म हिये महँ आनौ।।250।।
जो तुम देहु हमैं कछु सिच्छा।
तौ हम देहिं तुम्हैं यह भिच्छा।।
चित्त विचार परै सोइ कीजै।
दोष कछू न हमें अब दीजै।।251।।

स्वागता छंद

विप्र बालकन की सुनि बानी।
क्रुद्ध सूरसुत भो अभिमानी।।252।।