उत्तर जाने कहाँ खो गया। / पद्माकर शर्मा 'मैथिल'
मै तो केवल प्रश्न मात्र हूँ, उत्तर जाने कहाँ खो गया।
मेरा जीवन एक प्रश्न मात्र है, उत्तर जिसका भटक रहा है,
निर्बल नियतिसूत्र पर आश्रित, नग्न खडग-सा लटक रहा है।
कहने भर को टिका हुआ है, नाम मात्र का यह सम्बल है,
कौन कहे यह कब टूटेगा, मानस में फैली हलचल है।
सम्बल एक मिला था मुझको, वह क्यों मुझसे विमुख हो गया।
मै तो केवल प्रश्न मात्र हूँ, उत्तर जाने कहाँ खो गया।
मेरी कविता एक वृत्त है, जो विहीन है केन्द्र बिन्दु से,
पूनम की राते देखी हैं, फिर भी वंचित रही इन्दु से,
यह तो वह सागर है, जिसमें दुख की सरिताएँ मिलती हैं,
पतझर छिपकर मुस्काता है, जब बेसुध कलियाँ खिलती हैं।
कौन निर्दय माली आकर, इस बगियाँ में शूल बो गया।
मै तो केवल प्रश्न मात्र हूँ, उत्तर जाने कहाँ खो गया।
चैराहे से चला, और फिर सोचा मंजिल पर मैं आया,
किन्तु अरे जब आँख खुली तो, खुद को चैराहे पर पाया,
इसको कहते भुल भुलैया, यही कहाता जग का बन्धन,
आशाओ की शाम यही है, नश्वर जग का यह उत्पीड़न।
इन भावों के स्वप्नहार में, कौन अश्रुलड़ियाँ पिरो गया।
मै तो केवल प्रश्न मात्र हूँ, उत्तर जाने कहाँ खो गया।
मै अपने में एक पहेली, अति दुश्कर जिसको सुलझाना,
और उलझता ही जाता है, इस जीवन का तानाबाना,
मानव अपने में अपूर्ण हैं, वह अपनी सीमा में सीमित,
उसकी इच्छाएँ युगयुग से, किन्हीं क्रूर हाथों में नियमित।
आज कौन आंसु धारा बन, सपनों की तस्वीर धो गया।
मै तो केवल प्रश्न मात्र हूँ, उत्तर जाने कहाँ खो गया।