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उन्हें मन्दिर में रखा है / कविता भट्ट
Kavita Kosh से
चोट खाकर मुस्कराई, न गिरी, ना मैं लड़खड़ाई।
जिन पत्थरों ने ठोकरें दी, उन्हें मन्दिर में रखा है।
खामोश सर्द रातें भी, ओढ़ कम्बल पुरानी बिताई।
छीन ले जब वक्त सब कुछ, मन शिखर में रखा है।
सूने पतझड़ों में, पर्वतों से-सदाएँ मेरी लौट आईं
दिव्य स्वर- अंतर्नाद भीतर, हृदय विवर में रखा है।
क्षणिक सुख सब देह का, कभी भी न उलझ पाई।
गुदगुदाती प्रीत है, गुनगुनाता दर्द अंतर में रखा है।
पद-मद-अभिमान, सब- इस जगत की एक रुबाई।
मिट्टी हैं- अरमान 'कविता', क्या इस भँवर में रखा है?