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उभयचर-8 / गीत चतुर्वेदी

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मैं आपको 1810 की एक कहानी सुनाता हूं: इसे लंदन के पास एक गांव से हिंदुस्तान आए एक अंग्रेज़ पादरी ने 1838 में छपी एक किताब में लिखा है: वह पादरी यहां ईसाइयत का प्रचार करने और उससे पहले उसका एक रोडमैप बनाने आया था: पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव में एक पंडित जी सौ साल की उम्र पूरी कर मर गए: उनके गांव में शोक था: घर में नाती-पोते-परपोते तक थे: उनकी पत्नी बरसों पहले मर चुकी थी: उनकी चिता के साथ जलने वाला कोई न था: उनके बेटों ने, पड़ोसियों ने, गांव वालों ने, जवार वालों ने उनकी मौत की ख़बर दूर-दूर तक पहुंचाई: जाने कहां-कहां से औरतें घूंघट में आईं: अपना चेहरा तक न देखने दिया उनने किसी को: एक औरत कूद गई उनकी चिता में: जलती-तड़पती वह सती हो गई: फिर दूसरी: फिर तीसरी: चार दिन तक जलती रही पंडित जी की चिता: चार दिन में सती हुईं चालीस से ज़्यादा औरतें: वे सब उस बुज़ुर्ग मृतक की पत्नियां जो सौ साल के जीवन की उसकी गुप्त आय की मानिंद थीं: जिनके बारे में कोई जानता तक न था: वे ख़ुद भी एक-दूसरे से अनभिज्ञ थीं: शको-शुबहा तो यूं भी हुआ करता है: उन पर कोई बंदिश न थी सती हो जाने की: फिर भी जो जलकर अपना जीवन ख़त्म कर बैठीं: यह 19वीं सदी के शुरुआत के उत्तर प्रदेश में महिलाओं के मुक्त होने की गाथा है या स्थानीय भाषा न जानने की अंग्रेज़ पादरी की सीमा या जयदेव की गोपियां गीत-गोविंद की किसी जर्जर पांडुलिपि से निकल वहां दौड़ी आई थीं : आप यह न समझ लें कि मैं सती-प्रथा के समर्थन में हूं: पर चार दिन में चालीस महिलाएं जब एक साथ सती होती हैं तो मिलकर चालीस नहीं बस एक सवाल खड़ा करती हैं: वे चाहतीं तो कोई जान भी न पाता उनके और बुज़ुर्ग पंडित के संबंधों के बारे में: फिर क्या आया एक साथ उन सबके भीतर ऐसा: कि वे एक पल को भी न झिझकीं सार्वजनिक जल-मरकर पंडित के प्रति अपने प्रेम की इस तरह घोषणा करने से?