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उम्मीदें / दिनेश कुमार शुक्ल
Kavita Kosh से
जीवित मनुष्यों की तरह
उम्मीदें आयीं
और आँगन में बैठकर
धूप सेंकने लगीं
उस भ्रामरी दुपहर की गूँज में
धुनकी बज रही थी
झनझना रही थी पृथ्वी
समुद्रों से उठ रही थी रुई पानी की
उम्मीदों की बेहद चुप रहने वाली आँखें
बचपन और बुढ़ापे से एक साथ भर आयीं
गीली सोंधी मिट्टी की महक
फैल रही थी दूर तक।