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उम्मीद / शंकरानंद
Kavita Kosh से
अगर रोज़ सुबह होती है तो
यह उम्मीद के लिए एक नया दिन है
कल की अधूरी बातें
आधी रंगी हुई काग़ज़ पर फुलवारी
छूटी हुई ज़मीन
सुनने के लिए बचे हुए बीज
कल के सूने दरवाज़े
सब उम्मीद से जागे हुए हैं
कहीं भी कोई खटखटाता है तो
यही लगता है कि
कोई खड़ा है चौखट पर
वह हो या नहीं
इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता
बस, आँखों की चमक का
बरकरार रहना ज़रूरी है ।