भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उम्मीद की शहतीर / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
जिस दिन मैंने
अपने मकान में पाँव रखा
पतझड़ के दिन थे
मुझ पर और इस शहतूत पर
जो मेरे आँगन में खड़ा है —
उधर पत्ते न थे
इधर पैसे न थे
हम दोनों एक जैसे थे
मटमैली ज़मीन से जुड़े हुए ।
मैंने तने को कुरेद कर देखा
तना
पानी पड़े सूखे गत्ते की तरह
गीला था
हौसले की हल्की नज़र से
शहतूत ने मुझे देखा
एक उम्मीद की शहतीर
हमें साधे रही
महीनों तक ।
दिन फिरे
पतझड़ के मन फिरे
पोंपले खुलने लगीं पाँखों-सी
उँगलियों-सी बढ़ने लगी टहनियाँ
पत्ते हथेली की तरह लहराने लगे जैसे-जैसे
पैसे मेरे हाथ में आने लगे वैसे-वैसे
ग़रीबी हम दोनों ने काटी एक साथ
शहतीर को सँभाले हुए ।