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उलझ गए धागे / कुमार रवींद्र

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रेशम की मीनारें
          खादी के धागे
बढ़ता ही गया शहर आगे-ही-आगे
 
माँगे थे आँगन ने
धूप के अँगरखे
अँधियारे कात रहे
सोने के चरखे
 
क़ैद बंद कमरों में आइने अभागे
 
करवट ले सूर्य गए
धुंधों के घर में
साँझ हुई है अक्सर
ठीक दोपहर में
 
नींद भरी ड्योढ़ी पर कौन भला जागे
 
उलझन के तार कई
और हैं बहाने
किरणों की बस्ती के
अँधे हैं बाने
 
सारी पोशाकों के उलझ गए तागे