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उसके भीतर एक सपना था / रामदरश मिश्र

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कच्चे टूटे मकान में
कठोर हक़ीक़तें फैली हुई थीं-
कभी भूख-प्यासबनकर,
कभी तन का नंगापन बनकर,
इन्हीं के बीच उसका बचपन
चलता रहा नंगे पाँव
पाँवों में काँटे चुभे, पत्थर टकराये
घोर शीत ने गलाया
प्रचंड ग्रीष्म ने जलाया
लेकिन उसके भीतर सदा
एक सपना पलता रहा
जिससे वह हक़ीक़तों में होकर भी
उनके पार देखा करता था
भूख-प्यास लगी होती थी तो
चला जाता था खेतों की ओर
और डाल देता था अपने को
फसलों के रंग-प्रवाह में
ग्रीष्म में जब पाँव जलते थे
तबउसका मन उतार लेता था
पेड़ों की छाँह अपने ऊपर
और लगता था बादल आने वाले हैं
शीत अभाव-लदे नंगे तन पर जब
काँटों-सी चुभन लिए पसरा होता था
तब मन पतझर से होता हुआ
वसंत की ओर चला जाता था
ठंडे
सन्नाटे में फूल खिलखिलाने लगते थे
कोकिल गाने लगता था

गाँव में शिक्षा की एक छोटी-सीमंज़िलथी
यानी मिडिल स्कूल
उसका मन हमेशा उसके पार
कुछ देखता रहता था
कुछ स्पष्ट तो नहीं था पर था ज़रूर
कभी-कभी लगता था कि
वह खो गया है नंगी हक़ीक़तों के विकट विस्तार में
लेकिन तभी कोई भीतर गुनगुनाने लगता था
धीरे-धीरे ज्ञात हुआ कि वह कविता थी

ऐसे ही चलती रही उसकी जीवन-यात्रा
गाँव के सहयात्री रुकते चले गये
कोई यहाँ रुका, कोई वहाँ रुका
लेकिन उसके भीतर एक सपना था
जो उसे आगे ठेलता गया
हक़ीक़त के भीतर किसी और हक़ीक़त की तलाश में
और वह यहाँ तक आ गया

आज लगता है कठोर हक़ीक़तें
तो गुम हो गईं
लेकिन उसका सपना
एक हक़ीक़त बनकर व्याप्त है
यहाँ से वहाँ तक...।
-10.2.2014