भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उस पर्वत की कन्‍दराओं में गूँजकर / कालिदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: कालिदास  » संग्रह: मेघदूत
»  उस पर्वत की कन्‍दराओं में गूँजकर

ज्‍योतिर्लेखाव‍लयि गलितं यस्‍य बर्हं, भवानी
     पुत्रप्रेम्णा कुवलयदलप्रापि कर्णे करोति।
धौतापाङ्गं हरशशिरुचा पावकेस्‍तं मयूर
     पश्‍वादद्रिग्रहणगुरुभिर्गर्जितैर्नर्तयेथा:।।

पश्‍चात उस पर्वत की कन्‍दराओं में गूँजकर
फैलनेवाले अपने गर्जित शब्‍दों से कार्तिकेय
के उस मोर को नचाना जिसकी आँखों के
कोये शिव के चन्‍द्रमा की चाँदनी-से धवलित
हैं। उसके छोड़े हुए पैंच को, जिस पर
चमकती रेखाओं के चन्‍दक वने हैं, पार्वती
जी पुत्र-स्‍नेह के वशीभूत हो कमल पत्र की
जगह अपने कान में पहनती हैं।