ऋणोॅ रोॅ त्याग / नवीन ठाकुर ‘संधि’
जबेॅ-जबेॅ एैलोॅ परब,
तबेॅ-तबेॅ होलोॅ खर्चा दरब।
बच्चा बुतरू कानै छै,
कपड़ा लत्ता माँगै छै।
सोचतें-सोचतें माथा रोॅबढ़लोॅ दरद
जबेॅ-जबेॅ एैलोॅ परब।
हम्में गेलां महाजनोॅ हाँ,
बोललोॅ बैठोॅ एैलोॅ छोॅ कहाँ,
हम्में बोललाँ लेबोॅ कुछु रीन,
हुनीॅ कहलकौॅ जेबर दहु तीन
सुद छै सैकड़ा पर पाँच,
गिरवी में लानी देल्हां हम्में बरद,
जबेॅ-जबेॅ एैलोॅ परब।
छोड़ाय लीहोॅ तीन महीना रोॅ भीतर
नै तेॅ बेची देभौं होल्हों तीन महीना सेॅ ऊपर,
परब बितैलां खाय केॅ करजा,
खेती केनांकेॅ करबोॅ जों बिकलों बरदा,
धनोॅ रोॅ सब्भै केॅ होय छै गरब,
जबेॅ-जबेॅ एैलोॅ परब।
खरोॅ रोॅ तापलोॅ रीनोॅ रोॅ चाटलोॅ
आपनोॅ मेहनतोॅ सें जाय छै काटलोॅ,
कमाय कोड़ी केॅ खा,
मांगै लेॅ केकरो घर नै जा,
कहै छै 'संधि' सोची केॅ चलोॅ सब्भें मरद,
जबेॅ-जबेॅ एैलोॅ परब।