ऋषि दयानन्द से / लाखन सिंह भदौरिया
समय दे रहा है, चुनौतियों पर चुनौतियाँ,
देखता हूँ-पिये जा रहे हैं लोग।
यह कैसी जिन्दगी है तेरे दीवानों की
अपमानों में जिये जा रहे हैं लोग।
तेरी समाधियों के आँगन में,
आँधियों के नृत्य होते हैं।
आज धधक रहा है घर अपना,
वीर मरदाने पड़े सोते हैं।
और अंगिरा की गिरा पाकर भी,
ओठ सिये जा रहे हैं लोग।
समय दे रहाहै चुनौतियों पै चुनौतियाँ,
देखता हूँ-पिये जा रहे हैं लोग।
अपनी दक्षिणा की याद दिलाते हैं गुरू विरजानन्द,
चार लोगों का समर्पण कहाँ गया।
कुछ तो कहो अपनी वाणी से-
दहकती साँसों का क्रन्दन कहाँ गया।
चुप खड़े हैं आप गुरु सम्मुख
दोष पर दोष दिये जा रहे हैं लोग।
समय दे रहा है चुनौतियों पर चुनौतियाँ
देखता हूँ-पिये जा रहे हैं लोग।
प्रात लाने को रात भर जागे,
शिव खोजने को घर से भागे थे।
रात गयी कहाँ है? अब तक है,
भोग जिसके लिये सब त्यागे थे,
बेदमाता की कोख रोती है,
बार पर बार किये जा रहे हैं लोग।
समय दे रहा है चुनौतियों पर चुनौतियाँ,
देखता हूँ-पिये जा रहे हैं लोग।
किसलिये, पिये थे, विष प्याले
यह तो बताओ ऋषि हमको,
हमें डस लिया है कृतघ्नता की नागिन ने,
फिर से तुम जगाओ, ऋषि हमको।
तुम्हारे बलिदानों का कर्ज कितना है,
इसे शीश पर ढोये लिये जा रहे हैं लोग।
समय दे रहा है, चुनौतियों पर चुनौतियाँ,
देखता हूँ-पिये जा रहे हैं लोग।
तुमने तरुणायी जिस पर होमी थी,
वह कौन लब्धि थी, जिस का संगर था।
वह कौन प्राप्ति थी, जिसे पाने को,
तुम्हारा मुक्ति-सुख निछावर था।
तुम बताओ इसका है उत्तर क्या?
प्रश्न पर प्रश्न किये जा रहे हैं लोग।
समय दे रहा है, चुनौतियों पर चुनौतियाँ,
देखता हूँ-पिये जा रहे हैं लोग।
इस सवाल ने फिर सिर उठाया है,
‘समाज’ श्मशान है, कि बगीचा है।
जिसके सपनों में आप खोये थे,
जिसे अपने लहू से सींचा है।
कैसा पहरा चौकीदारों का,
बाग, बरवाद किये जा रहे हैं लोग।
समय दे रहा है, चुनौतियों पर चुनौतियाँ,
देखता हूँ-पिये जा रहे हैं लोग।
वर लिये अभिशाप सारे, तज दिये वरदान,
विश्व को अमृत पिलाकर, खुद किया विष-पान,
फूल बाँटे विश्व को, पा शूल के प्रतिदान,
है तुम्हारे अनगिनत, अहसान पर अहसान,
भूल सकता कौन? तुमको देव श्रद्धावन।
तुम हुए माँ भारती के क्रान्ति पुत्र महान।
सत्य से जन्मे हुए तुम सत्य में लयमान।
बन गया जीवन तुम्हारा सत्य का अभियान।