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ऎसी कौन रात हो गई / नवल शुक्ल
Kavita Kosh से
इन रास्तों पर
चलना है रोज़
यहाँ से यहीं के लिए
बीच में कहीं नहीं कुछ
कोई नहीं कुछ
कहीं नहीं कौआ
कहीं नहीं घर
बस बायाँ-दायाँ
फुर्र, फर्र।
यहाँ हूँ जहाँ
कोई नहीं वहाँ
न कोई आस-पास
न कोई ख़ास-वास
केवल हूँ मैं
हर ओर घुसा, घिसा।
क्या कहूँ, कैसा है
चारों ओर पैसा है
पैसा है, पैसा है
हाँ, बिल्कुल ऎसा है
मुश्किल है कहना
किस सुबह दूर हुआ
देखना, सुनना, जानना
ऎसी कौन रात हो गई।