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एंटीना / रेखा

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सुना है यह जो बस्ती है
था यहां कभी
जंगल बहुत घना

अब फिर उग रहा है
एक नया जंगल
पेड़ों की जड़ों से
उठ रही हैं दीवारें
गगन-चुम्बी देवदारू
की होड़ में
उग रही हैं
मंजिल-दर मंजिल
प्रगतिशील इमारतें
आदमी की आवाज़
रेंग रही है
बंद गलियों के तिलस्म में

हवा में उठ रही हैं
हथौड़ा हुई बंद मुट्ठियां
सिर से उठ गये हैं
हरियाले आच्छादन
हर छत हो गई है
एक खूंखार पंजा
आसमान के सीने में
गड़ गया है
खंजर-सा यह एंटीना

कहते हैं
यहां कभी जंगल था बहुत घना
डाली-डाली
बाँट जाते थे पंखेरू
वह लारे गीत जो
रचता था जंगल के उस पार
बैठा कोई कवि
वह अब भी गीत लिखता है
पर भूले से भी
नहीं बीनते बोल
वे पंखी

एक बूढ़ा कौआ
फड़फड़ाता है
एक एंटीना से
दूसरे एंटीना तक
और गीत मरे हुए चूहे-सा
चोंच में चींचींयाता है

मैंने देखा बंधु
जब से जंगल की जगह
उग आया है शहर
कविता मैना-सी नहीं गाती
गश्त लगाती है गलियों में
लावारिस कुत्ते-सी
हवा में सूंघकर
जमाने भर की बदचलनी
हत्या, चोरी, बलात्कार की गँध
भौंकती रहती है दिन रात अ
पराध जांच ब्यूरो के
दरवाज़े पर
आवाज़ें दुबक गई हैं जब से
इमारती जंगल में
आकाश के सीने में
गड़ गये हैं एंटीना हुए हाथ
शब्दों की तलाश में
जो दे सकें स्वर
पथरायी पीड़ा को
पर
हाथ नहीं आते
वह प्राणदायी मंत्र
आकाश उगल देता है
सिर्फ आवाजें
लहूलुहान
फिर लौट आता है
घरों में शोर
गलियों में हा-हाकार