भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एकमात्र प्रभुकी सेवा कर्तव्य कर्म है / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(राग देस-ताल मूल)
 
एकमात्र प्रभुकी सेवा कर्तव्य कर्म है।
नित्य निरंतर प्रेमपूर्ण, बस, परम धर्म है॥
सकल इन्द्रियोंसे, तन-मनसे मतिसे नित ही।
बनती रहे सदा सेवा यह चिर-वाञ्छित ही॥
रहे न कभी तनिक इच्छा आराम-भोगकी।
रहे न वाञ्छा तनिक मोक्ष, निज सुख-सँयोगकी॥
रहे एक, बस, प्रेम-सुधा-रस-‌आस्वादन ही।
सर्व-धर्म-मस्तक-मणि यह, हरि-‌आराधन ही॥