एकालाप / रंजना मिश्र
कई दिन और कई रातें
मैं छोड़ आई पीछे
टेबल पर रखी किताबों के साथ
महत्वाकांक्षा
नींदों में मँडराया करती
दुनिया जीत पाने का स्वप्न सबसे
ज़रूरी था उन दिनों
देखती आई थी
जीत अपने
साथ सारे सवाल बहा ले जाती है
समय की पगडंडी पर पैरों के निशान
ख़ुद का होना सार्थक करते हैं
कुछ रातों के आसमान पर
दफ़्तर में उगे अर्थहीन सवालों के जंगल थे
रिश्तों में भूलभुलैया थी, दाँव-पेंच थे
और भीड़ में था अकेलापन
महत्वाकांक्षा ने कोई और ही रूप धरा था
कोशिशें बार-बार आईना बदरंग कर जाती थीं
और वजूद के टुकड़े चुभते थे बार-बार ख़ुद को ही
कई दिन और कई रातें और गुज़री
जिनका कुछ नहीं किया मैंने
हथेली पर गाल टिकाए बारिश के साथ बहती रही
खिड़की के कोने में बने कबूतर के घोंसले को निहारती
एक माँ थी वहाँ जिसके अंडे हर बार गिरकर टूट जाते थे
वह अपनी सतत चौकन्नी दृष्टि से मुझे देखा करती
किताबें उठाईं और बस पलटकर रख दी
निरर्थक, बालकनी के पौधों की तस्वीरें खींचीं
और मिटा दीं
जलती आग को देखा, उगती भोर को चूमा और
पूरे चाँद की रातों में चाँद के साथ बीयर पी
वह बतियाता रहा अपना दुख और मैं ढूँढ़ती रही अपना
काँच की तश्तरी ने टूटते हुए समझाया
टूटने का संगीत
लगातार बहते आँसुओं से जाना
कोई दुख, सुख की चाह से बड़ा नहीं होता
सुनती रही कोई पुराना गीत बार बार
उस भिखारन बुढ़िया को याद करती
जो बचपन में हमें रिझाने के लिए गाने गाया करती
और कभी-कभी नाचती भी थी
बरसों बाद,
अब जानती हूँ
महत्वाकांक्षा के उन दिनों और रातों ने
मुझे उतना नहीं माँजा जितना उन नामालूम बिसरे-से दिनों ने
जिन रातों ने मेरे पैरों को ज़मीन और सिर को आसमान दिया
वे मुझे गहरे उतरना और उड़ना नहीं सिखा पाए
जिनका कुछ नहीं किया मैंने
वे गढ़ते रहे मुझे
जो रातें मैने बिला वजह जागते हुए गुज़ारीं
उनसे—कई कविताओं की महक आती है
इन्हीं दिनों मैंने जाना
ख़ुद को समझ पाना
अपनी यात्रा का अंत है
और हार जाना, कई बार
अपनी आत्मा की सीढ़ियाँ उतरने-सा।