एक और जय / दीपक मशाल
जय जवान और जय किसान के बाद कहें या पहले
एक और जय लगाएं क्या?
अरे नहीं विज्ञान की जय नहीं..
विज्ञान की तो जय है ही
लेकिन एक और जय है
एक किसी ऐसे वजूद की जयकार
जिसके बिना दुनिया का वजूद ही ना हो..
अभी शाम को
भूख लगने पर जब किस्मत को कोसते हुए
दिन में दूसरी बार घुसना पड़ा रसोई में
और खोजने पड़े चाकू, प्लेट
तो कुछ मांजने पड़े
फ्रिज से निकाली तरकारियाँ और प्याज-मिर्च को काटते हुए
छौंकते हुए तेल में
और बेलते हुए रोटियाँ
ये ख्याल भी रोटियों के से गोल ना सही
मगर किसी आकार में ढलते गए
कि दो साल में खुद का ऐसे उकता जाना
ऐसे परेशान हो बैठना
हर रोज की इस चकल्लस से
हर रोज कपड़ों में भरती मसाले की इस बू से
ख्याल आया उनका
जिनका जीवन गुज़रता है इसी चूल्हे चौके में
जिनकी पायल की झंकार देखते ही देखते
इसी रसोई में बदल जाती है खांसी में
लेकिन उनकी दिनचर्या नहीं बदलती
सारा दिन धूप में अपना बदन जलाते किसान
जो पैदा करते हैं अन्न
उनकी अवश्य ही जय हो
लेकिन क्या जय उसकी नहीं
जो इस अन्न को थाली में परोसने लायक ना बनाये तो
ये अन्न भी गाय, बैल, भैंसों की सानी बन उनकी नांद में पड़ा हो
क्या नहीं खौलती वो जेठ की भरी दुपहरी में भी
अपने लोगों के लिए भट्टी की तरह जलते चौके में
क्या उसकी आँख नहीं रहती चौकन्नी
सीमा पर रहते चौकस जवान की तरह
भले ही इसलिए सही कि सूरज की पहली किरण
कहीं उसकी आँख खुलने से पहले
देहरी पार कर ना घुस आये आँगन में
गर सर्दी में ठिठुरते खेतों को पानी देता है किसान
तो क्या वो दिन भर की थकान के बावजूद
रात की चौंकती नींद लेने से पहले नहीं माँज रही होती
कडकडाती ठण्ड में ही सुन्न और नीले पड़ते हाथों से
दिन भरके ढेर लगे जूठे बासन
क्या जयकारी विज्ञान के कारनामों से कमतर हैं
उसकी अचार और पापड़ को साल भर को सुरक्षित रखतीं खोज
अरे विज्ञान ने ही तो दी गवाही
कि प्रसव वेदना में होता है
गोली लगने से भी भयंकर दर्द
कह दो कि क्या अर्थशास्त्र पढ़े बिना
मुसीबत के समय
उसके हाथ में कहीं से नहीं हो जाती है प्रकट
कुछ बुरे दिन काटने भर को राशि
तो क्यों उसे सिर्फ मानव योनि के अवतरण का माना गया है द्वार
क्यों नहीं कह सकते उसकी जय
जवान, किसान और विज्ञान से पहले
क्या सिर्फ इसलिए कि
उसका सम्बोधन उच्चारण में इन तीनों के सम नहीं!!!