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एक कविता की तरह / महेश सन्तोषी

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मैंने तुम्हंे एक कविता की तरह भी जिया,
और एक प्रमिका की तरह भी,

माँसल स्पर्शों से लेकर, शरीर की मादक गन्धों तक,
देह से, देह पर लिखे, लिपिविहीन छन्दों, अनुबन्धों तक,
अनन्य समर्पणों की, उन मौन सम्पूर्णताओं में,
वर्षों हम बँधे तो रहे, एक दूसरे की सजी बाँहों में,
तब मुझे लगा, मैंने प्रेम किया भी,
प्रेम को जिया भी, जिसने शब्दों को अर्थ दिया,
प्राण दिये, मेरे लिए सुनाम है, मेरी वो प्रमिका!

मुझसे जुड़ी सहस्रों अनुभूतियाँ,
अभावों के अनबुझे पहाड़,
यादों की निरन्तर निर्झरत नदियाँ,
जंगलों से तुम्हें बुलाती हवाओं की मीठी ध्वनियाँ,
तुम्हें नहलाते नीले-अधनीले सागर,
बदन झाँकने को आतुर, हथेलियाँ फैलातीं चाँदनियाँ,
सबने एक दिन एक-एक कर
जैसे मेरे कानों में कहा
तुमने हमें ही नहीं,
हमारे साथ-साथ अपने प्यार को भी जिया!
तब मुझे लगा, तुम केवल मेरी प्रेमिका ही नहीं
तुम तो थीं साँसों से शब्दों तक प्रभावित-अप्रभावित
शब्दों से साँसों तक संचरित जीवित कविता!!