एक चिट्ठी बेटी के लिए / प्रकाश मनु
बेटी तू तो गई है नानी के
और पापा को बिलकुल भूल ही गई शायद
कि दफ्तर से लौटेंगे तो झट गले में झूल
पीठ पर कुदक्कड़ी मार
छत की रौड़ पकड़ेगा कोन
किसका कान मरोडे़ंगे पापा
आंखें तरेरकर
डांटेगे और मुसकराएंगे मन्द-मन्द
बेटी तू तो पास है मम्मी के
और मम्मी की मम्मी की भी गोद में
दुबक जाती होगी मौका देखकर
मगर मेरे पास तो यह धूलअंटा खाली-खाली
कमरा ही बच गया न
और कुछ लाचार दिन
तेरे पीछे यह खाली-खाली कमरा
बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता बेटी
कोने में औंधा पड़ा तेरा भालू जरूर
आंसू बहाता होगा चुपके-चुपके
और हरी नीली चोटी वाली गुड़ियां तो मुझे
पक्का यकीन है
चारपाई तले के कबाड़ में फंसी
दांत किटकिटाती होंगी मुझ पर
मगर हिम्मत ही नहीं होती लगाऊं हाथ
पोंछकर सजा दूं अलमारी में
लगाऊंगा हाथ तो कीलों पर टंगे भालू जिराफ जोकर
नहीं पकड़ लेंगे शरारतन कालर मेरा?
मुंह बिचकाती है अक्सर पंखे की गरम हवा में
फड़फड़ाती चिड़ियां
जो तूने कलैंडरों पर बनाईं
और मैं सन्न रह जाता हूं
फिर बता-बता तो जरा
अजगर की तरह बेतरतीब फैले वक्त में
मैं किससे खेलते काटूं वक्त
और कैसे-
कौन बातें करते-करते टोकेगा मुझे गोल
शरारती आंखों से
(जब मैं दफ्तर के मनहूस दोस्तों की हिंसा
चेहरे से झाड़ने की खातिर
गालों में फूला-फुलाकर हवा
गरदन मटका रहा होऊंगा एकांत में!)
-कि पापा लगता है कि जैसे आप
जोकर हैं
अपनी यह जोकरी किसे दिखाऊं बेटी
किसे बताऊं कि कैसे
रोज-रोज दुबलाते
(झुंझलाते!)
बीते हैं ये मरमुक्खे दिन
मगर हां, बताऊं!...
कि वो कल का किस्सा तो कुछ अजब ही है
कि जब शुरू हुआ जिन्दा जादू का खेल
मेरे आगे-पीछे
और मैं भौंचक्का!
मैं जो पड़ा था कमरे की गर्द में उदास
ऊबा हुआ सोचता कहां जाऊं
क्या करूं छुट्टी के दिन
की अजीब मुसीबत में!
तो अचानक
तेरी ड्राइंग वाली डायरी तक चला गया हाथ
जिसकी जल्द तो कब की उखड़ गई
पन्नों पर धूल गर्द...
मगर जैसे ही दाखिल हुआ तेरी उस रंगों
वाली दुनिया में
सब कुछ उलट-पुलट गया
डायरी में बने चित्रों में होने लगी हरकत
तितली उड़ी तो उड़ती ही चली गई आसमान तलक
हिरन भागता ही चला गया जंगल की ओर
भागा तो भागते-भागते
भालू से टकराया
दोनों ने हाथ मिलाया दो भले दोस्तों की तरह
फिर खेलने लगे ठीक वैसे ही जैसे तू
खिलाती थी उन्हें झूठ-मूठ
अपनी वाचाल सहेलियों के बीच
और फिर देखते ही देखते
तूने जो बनाए थे कुत्ता गाय मुर्गी बत्तख लूमड़
और बिलौटे
सबमें ही जान पड़ गई
एक-एक कर आते गए पास
फिर तो घेरा बनाकर सभी मेरे चारों ओर
नाचे-कूदे
कूदे नाचे खिलखिलाए
एक नन्हीं खिलखिलाहट थी वह बेटी
बिलकुल तेरी ही तरह
कि जो छुपम छुपाई से निकलकर आए
तेरे चमकते चेहरे पर सजी होती थी-
कि पापा मैं तो गई ही नहीं
लो पापा, मैं तो यहीं हूं आपके साथ!
अब तू ही बता बेटी
कि पूरा डेढ़ हफ्ता तो बीत गया तुझे गए
मैं तुझे चिट्ठी लिखूं तो क्या
और न लिखूं तो कैसे!