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एक ज़िन्दगी यह भी / कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
Kavita Kosh से
खाली पड़े बरतनों की खनक से
कुछ होने का धोखा खाकर,
लहू का घूँट ऊपर से पीकर,
वो लेट गया
प्रकृति प्रदत्त बिछौने पर,
ओढ़ कर आसमान की चादर
क्योंकि वह एक
गरीब आदमी है,
जो रोज ही कुँआ खोद
पानी पीता है,
दिन कटता है सारा
कुछ पाने की आस में,
काट देता है सारी रात
अगले दिन की आस में।
वही भूखे पेट की आग
जिससे था उसका
रात-दिन का साथ,
कभी-कभी खाली बरतनों में
ख्याली पुलाव पकाता था,
पेट की आग को शान्त
ऐसे ही कराता था।
यह है उसका
रोज का सिलसिला,
भूख से भोजन का
वही फासला।
यदि आज है कुछ खाने को
तो, कल का भरोसा नहीं,
क्या पता कल
खाली बरतनों की खनक भी
रहे न रहे!