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एक टुकड़ा गाँव / सत्यनारायण सोनी
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यह महानगर की 
एक पतली गली, 
गली में इमारतें 
ऊँची-नीची 
बहुमंज़िली ।
इन्हीं के बीच 
लेव लटकती 
भींतों वाला 
एक पुराना घर, 
गारे-माटी से निर्मित ।
ज़माने पुराने
किंवाड़ काठ के 
बड़े-बड़े पल्लों वाले, 
खुले हुए हैं 
और दरवाज़े पर 
एक बुढिय़ा
घाघरा-कुरती पहने, 
तिस पर औढऩा बोदा-सा, 
आँखों पर चश्मा 
टूटी डंडी वाला
जिसकी कमी पूरी करता 
एक काला डोरा,
लाठी के ठेगे खड़ी 
निहार रही है 
गली टिपतों को, 
आँखों पर अपने 
दाँए हाथ से छतर बनाए ।
वह देखो, 
बाखळ में 
मैं-मैं करती बकरियाँ 
और आँगन में पळींडा भी ।
अहा, 
देखो,
इस महानगर में 
किस तरह 
मुस्करा रहा है 
एक टुकड़ा गाँव ।
 
	
	
