एक थी पौध गुलाब की / कुमार विमलेन्दु सिंह
एक थी पौध गुलाब की
उस पर थे दो फूल
सुन्दर थे सुगंध से भरे हुए
पर स्थितियाँ न थी अनुकूल
उस गुलाब की पौध पर
कीटों का था वार
डरे हुए थे पुष्प दोनों
देख अपना संसार
माली ही तोड़ ले जाए मुझको
करे अपना व्यापार सफल
सुगंध मेरी सम्मानित होगी
व्यर्थ न होगा मेरा परिमल
ऐसी इच्छा एक पुष्प ने
दूसरे से जताई
इस उद्यान से परे जाने की
अपनी बात बताई
इसी पौध से प्राण मिला है
यहीं पाया है हमने परिमल
उचित है यहीं निष्प्राण होना
अब सफल हो जीवन या विफल
कहा यही दूसरे पुष्प ने
और अपनी निष्ठा दिखाई
बात जब अलग होने की
दोनों पुष्पों में उठ आई
पहले पुष्प ने शान्त भाव से
इस तर्क को सहा
गहन विचार करने के बाद
उसने आगे कहा
सफल, विफल की बात नहीं
बात है सम्मान की
स्थिर रह कर नष्ट होने की
या टूट कर निर्माण की
टूट गए अगर यहाँ से
बनेंगे हम किसी भाव का अंश
यहीं रुके तो क्या मिलेगा
अभिशप्त जीवन, भ्रमरों का दंश?
यही कह टूट चला वह पुष्प
किसी व्याकुल प्रेमी के साथ
दूसरा पुष्प पर वहीं रहा
नहीं छोड़ा पौध का साथ
सुरभित किया प्रेयसी का मन
उस प्रेमी ने वह पुष्प देकर
स्वीकार किया प्रणय उसने भी
प्रेमी से वह पुष्प लेकर
दूसरा पुष्प जो वहीं रहा था
अपने जनक पौध के साथ
निस्तेज अब हो चुका था
और अन्तिम थी उसकी रात
बीत चली जब शर्वरी
दोनों पुष्प पड़े थे मृत
एक पृष्ठों में सज्जित पड़ा था
दूसरे को निगल चुकी थी
यह निष्ठुर धरा विस्तृत