आषाढ़ की इस ऋतु में
शहर के जन समुद्र से उत्पन्न
नीरवता से दूर मैं आ गई
अपने गाँव में
अरसे बाद आषाढ़ की इस ऋतु में
जल भरे खेतों में
धान रोपते कृशकों को देख
हर्शित होने लगा है मेरा मन
शीतल हवाओं संग उड़ने लगा है
आम और लीचियों से
उठने लगी है मीठी महक
मित्रता का सम्बन्ध स्थापित करते
खेतों में उड़ते सफेद बगुलों के झुण्ड
मेंरे समीप आकर सुना जाते हैं गीत कजरी का
प्रकृति से... मनोहारी ऋतु से...
खेत की मेड़ों पर क्रीड़ा करते वे
आमंत्रित करने लगे हैं सावन को
ओ मेरे गाँव!
तुम्हारे इर्द-गिर्द निर्मित होने लगी हैं
संवेदनाओं से शून्य कंक्रीट की आबादी
यहाँ की हवायें धुँधली न हो जायें
इससे पूर्व
मेरे उजले गाँव! तुम मेरे साथ
मेरे शहर में चलो।