भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक नई प्रार्थना / कैलाश वाजपेयी
Kavita Kosh से
होंठों तक आते ही शब्द सुलगने लगें
मेरी शेष चाहें भी वंध्या ही मर जाएँ।
वस्त्रों में आग लगी हो मैं चीखूँ नहीं
बेपनाह आँखों को तिमिर रोग लग जाए।
मन मेरा
पिसे हुए काँच-सा
दुनिया के जल में घुले नहीं।
अच्छा हो
मोमिया पंख भी पिघल जाएँ।
इतना निरर्थक प्यार लगने लगे-
जैसे किसी शव को जहर दिया जाए।
ओ तमाम बूढ़ी महिलाओं, अपाहिजों, हत्यारों
के ईश्वर !
इतना विक्षिप्त अब
कर दो मुझे तुम
कि साँस साँस में लोहे की खनक आए
फँसी हुई मछली-सा तड़पूँ तुम्हारे लिए
इसी बीच अकस्मात्
डोरी ही टूट जाए।