एक बार / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
एक बार
जलते ही जलते
एक दीपक को
हुआ यह अभिमान
‘मैं हूँ मिट्टी का तो
इससे क्या?
मुझसे भी बड़ा कौन
और कौन है महान्?
चाँदी-सा चाँद यह
सोने-सा सूरज, सितारे ये
मेरे सामने हैं क्या?
चाँद तो करता है
केवल निशि में प्रकाश,
दिन के लिए है नहीं
उसका अस्तित्व कुछ।
और ये सितारे
जो कि टिम टिम टिम करते हैं
इनका भी अस्तित्व
सीमित सबेरे तक।
सूरज भी करता है
केवल दिन में प्रकाश,
रात के लिए है नहीं
उसका अस्तित्व कुछ।
जाता वह विश्राम करने जब रात में
मुझको ही सौंप कर
जाता है अपना भार,
रात भर जल जल कर
घर घर का
अंधकार हने का।
मैं ही तब जल जल कर
रात भर
हरता हूँ अंधकार
घर घर का।
और दिन में भी जहाँ
पहुँच हैं पाती नहीं
सूरज की किरणें भी,
कोने-कोने में वहाँ
पहुँच कर मैं ही
अंधकार को भगाता हूँ।
इसलिए
मुझसे है बड़ा कौन?
इसलिए
मुझसे है श्रेष्ठ कौन?
मुझसे महान् कौन?
सोचते हुए यों,
सिर ऊँचा कर
चारों ओर दृष्टि एक डाली तब
उसने सब सृष्टि पर
गर्व औ’ गुमान-भरी,
शान-अभिमान भरी।
उसी क्षण आया हल्का-सा ही
झोंका एक वायु का।
पैर लड़खड़ाये,
सिर नीचा हुआ दीपक का
बुझ गया वहीं पर वह
रजनी के सूने अंधकार में,
चाँद और तारे हँस रहे थे आसमान में।
2.7.61