भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक संदेश एक कविता / छवि निगम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लो भई, दी तुम्हे आज़ादी, सच में
लो की तुम पर मेहरबानी कितनी
सर ज़रा झुका रक्खो, चलो आगे बढो़ न
जाओ, जी लो तुम भी थोड़ा बहुत
सच में
ये अहसान किया तुम पर, सनद रहे।
चलो दौड़ो
छोड़ा तुम्हे अपने
सपाट इन दबोचती सडकों पर
आज़ादी के पाट पग बाँधे
ठिठको तो मत अब
देखो पीठ पर कस चाबुक पड़ेंगे जो
सह लो
समझो तो जरा
हैं तुम्हारे ही भले को ये, कसम से
ऐसे ही तो रफ्तार बढेगी न
साँसे ले लो हाँ
लेकिन
जरा हिसाब से
दमघोंटू दीवारों में ही रह कर कसमसाओ तुम
सम्भाल के
सुरक्षित रहना जरूरी है, समझो तो
धुएं के परदे में छिपकर
उगाहो रौशनी
सहेजो जा कर, जाओ ढूँढो तो
तुम्हारे हिस्से की अगर कहीं कुछ होती हो तो।
किसी नुकीले पत्थर पर
पटक दी जाओ गर कभी
पड़ी रहो चुपचाप
करो बर्दाश्त सारी हैवानियते
आराम से बेआवाज़..
चीर दी भी जाओ तो क्या
मरती रहो इंच दर इंच
खामोशी से..
मरती रहो
यूँ ही जीती रहो हौसले से
सबकी लाज का दारोमदार है तुमपर सोचो
लुटेरे तो आयुष्मान ठहरे
जीती रहो का आशीष तुम्हारे नाम हुआ ही कब कहो?
हाँ, अग्निपरीक्षा पर हक तुम्हारा, हे सौभाग्यवती
रास्ता कोई और रहा ही नहीं
पर सदा ही चौकस रहना
इज्जत सभी की हमेशा बची रहे
कुआँ पोखर कुंडा रस्सी..जाने कितने रास्ते
कहीं कोई नाम न उछलने पाए किंचित भी
ऐसा न हो
कि फिर तुम
बस एक चालू मुद्दा
चौराहे की चटपटी गप्प
बहसबाजी का चटखारा
और फिर
एक उबाऊ खबर बन कर ही रह जाओ।
बेस्वाद बासी खबर की रद्दी सी बेच दी जाओ..
कि फिर
केवल याद आओ
तब
जब भी कहीं कोई और गुस्ताख
कभी दरार से झांके, कुछ सांस ले
थोड़ा सा लड़खड़ाये
पर चले
क्षीण सी ही, पर आवाज़ करे
कालिख में नन्हा सा रौशनी का सूराख करे
यूँ कि
फिर से
नया एक मुद्दा बने।