एन्ने फ्रैंक की डायरी / भास्कर चौधुरी
नाज़ियों से छिपते-छिपाते
पिता लेकर आए थे एन्नेको अपने साथ
और ऑफिस के आधे हिस्से में
रहने लगे पत्नी, एन्ने और बड़ी बेटी के संग
यहींएन्नेकी तेरहवीं जन्म्दिन पर
पिता ने भेंट किया एक डायरी–
एन्ने की पक्की सहेली
लगभग दो साल तक
एन्ने ने लिखा इसी डायरी में
अपनी उम्र का हिसाब
चुप्प हो गई वह
अचानक एक दिन
पकड़ ले गए नाज़ी
एन्ने को और लोगों के साथ
और एन्ने मर गई कुछ दिनों बाद...
दिन तो गिनती के थे पर
डायरी के पन्नों में था उन दिनों का हिसाब
जब तेरह बरस की एन्ने ने फिर जन्म लिया दुबारा
अबकि तेरह की उम्र में
डायरी में समेटा एन्ने ने स्कूल की यादों को
बच्ची से लड़की बनी
ख्वाबों में जवान फिर प्रौढ़
बीच-बीच में बूढ़ी भी
एन्ने की दास्तां 1942 से 1944 के बीच की है
होती आज़ ज़िंदा एन्ने तो पचासी की होती
जैसे अनगिनत हैं ज़िंदा पचासी के
अपने नाती-पोतों के साथ
जीते हुए शिद्दत से
दुनिया को बेहतर देखने की उम्मीद लिए हुए
जीती एन्ने भी...
तेरह की एन्ने पंद्रह की हुई
यहीं ऑफिस में आधे हिस्से में
जिसे वे घर कहते
जिसमें फाईलों की गंध के साथ-साथ
मिली होती टॉयलेट और रसोई की गंध
जिन्हें अलग करना मुश्किल होता किसी के लिए भी
जहाँ एक परिवार और आकर जुड़ा कुछ दिनों बाद
श्रीमती और श्री वैन डान और पीटर का
पीटर दोस्त बना एन्ने का
और एन्ने की माँ की आँखों की किरकिरी
साथी एक बड़ी होती हुई लड़की की बातों को सुनने वाला
हालांकि कई बार पीटर की समझ से परे होती एन्ने की बातें
फिर भी वह सुनता
इसीलिए एन्ने को अच्छा लगता...
कहते हैं टाईफस से मर गई एन्ने
मर गई या मारी गई
यहूदी थी -
नाज़ियों के लिए लिजलिजे कीड़ों से भी बदतर
जिनका जीवित रहना
खतरा था आर्यों की शुद्धता के लिए...
अब फिलीस्तीनी हैं गाज़ापट्टी पर
यहूदियों के आँखों में चुभते हुए
जाने कितने एन्ने मरे
एन्ने की उम्र में प्रौढ़ और बूढ़े हुए
इस बार फर्क सिर्फ इतना ही कि
नाजियों के कॉसंट्रेशन कैम्प में
टाईफस या टायफाईड या जहरीली गैस से नहीं
गोलियों या बमों ने ली उनकी जान
या उससे भी भयानक कोई चीज़
जिसके लगते ही शरीर में
एह्सास होता अनगिनत सूइयों के चुभने का सा
जो बच्चों और जवानों नहीं करता कोई भेद...
आज हज़ारों एन्ने गाज़ापट्टी में यहूदियों के निशाने पर
ईराक की पहाड़ियों में
सिया सुन्नी के झगड़ों के बीच
आई एस आई एस के मोर्टारों की ज़द में
या तालीबानियों के हाथों मौत के डर से
ढकें हुए भीषण गर्मी में भी सर से पाँव तक काले कपड़ों में
या अमेरिकी ड्रोनों के साये में
काँपते हुए डर से
कि आतंकवादियों को खोजते
दो-चार निशानें ग़लत पड़ जाए तो क्या
और ईधर इरोम शर्मिला
चौदह बरस बाद
कहते हैं मुक्त हुई जेल से
अपने ही देश में
पराए कहे जाने का दंश झेलती हुई
खोजती हुई अपने ही देश में देश को!
क्या फर्क 1944 और 2014 में??