ओ पेड़... क्या कहूँ / अनुपमा पाठक
ओ पेड़... क्या कहूँ
ट्रेन की खिड़की से
बाहर झाँक रही हूँ
यात्रा में हूँ... अब तक के
पड़ावों को आँक रही हूँ
कितना कुछ है जो
छूट रहा है हर पल
बीतते वक़्त की कमीज़ पर
कुछ भाव टाँक रही हूँ
ओ पेड़... तुम मुझे
भागते हुए लग रहे हो
ये क्या, क्यूँ मेरी दृष्टि को
यूँ ठग रहे हो
जबकि ये मैं ही हूँ
जो भाग रही हूँ, लेकिन सच कहूँ-
एक स्थान पर स्थित होते हुए भी
कितनी ही यात्राओं में तुम मेरा पग रहे हो
मुझे ऐसा लगता है
मानों तुम ही यात्रारत हो
एक ही स्थान पर अडिग खड़े
कर्म में निरत हो
यह जानते हुए भी कि
कोई उदास रागिनी मेरे भीतर ही है बज रही
मुझे ऐसा लगता है
जैसे उदास तुम्हारी भी सूरत हो
तुम्हारी डालियों को
लहलहाते देखा है
समय लिखता नित
भाग्य का नया लेखा है
यह जानकर भी कि
पथिक के साथ नहीं चलते तुम
नेह का धागा बाँध
जीवन के विविध तापों को हमने संग संग सेंका है
रिश्ता है ज़रूर
अकारण नहीं ये बातें होती थी
मुझे याद है
तेरी छाँव में बैठ मैं अक्सर रोती थी
परिस्थितिजन्य कष्टों की
सारी वेदना
तेरी निकटता में
आंसुओं में पिरोती थी
आज जब दिख रहे हैं
यात्रा में ये छूटते पेड़ सारे
याद आ रहे हो तुम
जो छूट गए विश्वनाथ मंदिर किनारे
छूट कर भी नहीं छूटते
कुछ विम्ब जीवन में
भले ले जाएँ कहीं भी
किस्मत के सितारे
ओ पेड़...
क्या कहूँ
सदा तेरी ख़ुशी के लिए
मैं प्रार्थनारत रहूँ
और मिले जो
अभीष्ट तुम्हे
बन कर ख़ुशी के आंसू
तेरे नयनों से बहूँ
ओ पेड़... क्या कहूँ