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ओ सखि सुन - 1 / विमलेश शर्मा

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प्रेम का
अढ़ाई आखर
जब स्त्री लिख भर देती है
कान खड़े हो जाते हैं कईं
आँखें फटी रह जाती हैं
होंठों पर आ जाती है व्यंग्य की कुटिल हँसी
य-का-य-क
रीत है समाज की,
कि
प्रेम भले ही आसमानी रहा हो
पर मीरा को कहा बावरी ही गया है।

क्यों सखि! जब हम-तुम लिखती हैं प्रेम
हमारे आस-पास की दीवारों पर
ज्वार आ जाता है न?
कई मान्यताएँ
इस भूडोल से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं न?

और हम फ़िर भी
कानों में धुन रूहानी लगा
लिख देती हैं
' खुसरों दरिया प्रेम का
उलटी वा की धार! '

जिओ, खिलो, बढ़ो, लिखो, पढो, ख़ूब रचो
इतना कि रूढ ज़ंजीरों में

तुम्हारे भावों का योग हो जाए
सिरजो यों कि
वो योगरूढ हो चलन में आ जाए
चलन कुछ यों हो
कि वह व्यवहार में आ जाए

बुत बनने बिगड़ने के बीच
यदि मानवता, सात्त्विकता और प्रेम सहेज सको
कोमल कोंपलों के लिए
तो तुम्हारा होना सार्थक है

सुनो!
नर्तन, सर्जन और अन्नपूर्णा रूप के साथ
अपना मान करो मन भर दीठ से
धूप और रोशनी मलो उदास चेहरे पर
और खौंफ पर उनमनी पीठ उलट कर गुनगुनाओ
ता-रा-रम-पम!

क़लम उठाओ और चुनो ख़ूबसूरत शब्द
समरसता के लिए
अपने उस सहोदर वर्ग के लिए
जिसे यह समाज कभी आधी
तो कभी पूरी आबादी कहता है।