औरत / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
समय और समाज के बीच 
एक औरत की तरह, औरत 
स्याही की धूप में जलती हुई-सी 
अब भी बाहर है क़लम की क़ैद से 
समय की चादर बुन रही है फिर 
गले से गुज़रता है साँसों का क़ाफ़िला 
सितारे दफ़्न हो गये कदमों की कब्र में 
आँखों से आह की बूँद नहीं आई 
बिखर से गये हैं सोच के टुकड़े 
क्षितिज के गालों पर हल्की-सी मुस्कान 
बीमार होता है जब कोई अक्षर 
सूखने लगती है पलों की पंखुड़ियाँ 
बाढ़-सी आती है उम्र की नदी में 
अंधेरा उठता है चाँद को छूने 
चुपचाप देखती है मटमैली मिट्टी 
कभी तमाशा, कभी तमाशाई बन कर 
जब बदली गई ‘बेडशीट’ की तरह 
और छपती रही काग़ज़ों के लब पर 
सोचता रहा सदियों तक कमरा 
टूटा हुआ कोई साज़ हो जैसे 
चुटकी भर उजाला बादलों ने फेंका 
खुलता गया सारा जोड़ जिस्म का 
रूह सीने से झाँकने लगी 
गीली हो चली धूप भी मानो 
और जीवन को मिल गया मानी 
सन्नाटों के सारे होठ जग उठे 
शर्म से सिमट गई चाँदनी सारी 
बोल पड़ा सूरज अचानक से 
समय और समाज के बीच 
एक औरत की तरह, औरत 
	
	