भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

औरत - 2 / संगीता गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


औरत
रचती है घर
बहुत शुरू से

गुड़िया बेजान
सीने से लगाये लगातार
महसूस करने लगती है
धड़कनें उसकी
ताना - बाना अपने सपनों का
बुनती है उसके इर्द - गिर्द

नन्हीं - सी दुनिया
अपनी खुद की बनाती
बोती खालिस उम्मीदें
तमाम तरह की
फूल रंग - रंग के खिलते

हुलस कर चूमती
अपने जने शिशु को
निहारती अपलक
सच हुआ सपना
विस्तार अपनी सत्ता का
पूरा महसूस करती खुद को