भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
औरों के लिए / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
औरों के लिए अपने कलेजे का लहू
कितना उड़ेलोगे
और कितना बचा ही रह गया है लहू
जब गहराती है रात और थम जाता है शोर
तब क्या सुनाई देती है तुम्हें
अपने भीतर की करुण पुकार
अपनी ख़ामोश सिसकियों की व्याख्या
क्या तुम कर सकते हो शब्दों में
औरों को रोशनी पहुँचाने के लिए
बाती को जलाए रखने के लिए
दीप में तेल की जगह
कब तक जलाते रहोगे अपना लहू
कभी सुनते हो तुम अपने ही दिल की बात
अपने सपनों, अपनी हसरतों का क्या
कभी रख पाते हो ख़याल अपनी पसन्द की
जिन्दगी को चुनने के लिए कभी ठिठकते हैं क्या तुम्हारे क़दम
औरों के लिए अपने कलेजे का लहू
कितना उड़ेलोगे
और कितना बचा ही रह गया है लहू ।