और के मेहमान / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
जानता हूँ
और के मेहमान हो तुम,
आज भर स्वीकार लो मेरा निमन्त्रण।
मैं सरोवर-सा बँध अकुला रहा हूँ,
मुक्त होकर मैं नहीं कब से बहा हूँ;
पर्वतों को पार कर आया पवन है,
चाँदनी भी छोड़कर आयी गगन है;
स्पर्श के संकेत:
तोड़ो जड़ नियन्त्रण,
यह अबाधित और अकलुष चाह के क्षण
हर अधर को गीत कोई चूमता है,
बाग का हर एक पत्ता झूमता है;
हर दिशा, हर दृश्य से स्वर छूटते हैं,
मूक जड़ता के सहóों कंठ जैसे फूटते हैं;
शब्द के संकेत:
केवल गीत-गायन
लक्ष्य से बढ़कर सुरीली राह के क्षण
होठ की परछाइयाँ गाने लगी हैं,
दर्द को जमुहाइयाँ आने लगी हैं;
जीतती है हार बारम्बार मेरी,
लरजती है महकती मनुहार मेरी;
गन्ध के संकेत:
झूठे मान-प्रकरण,
यह सुगन्धित और शीतल दाह के क्षण।
अनथके अवरोह मेरी रागिनी के,
छू रहे हैं छोर अन्तिम चाँदनी के;
छा रही है ऐन्द्रजालिक मूर्च्छना सी,
रस निमग्ना यह सुहागिन अर्चना सी;
रूप-रस-संकेत:
तर्कातीत द्रावक
यह अतल गहराइयों की थाह के क्षण,