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कंजी आँखों वाला कैंचा / अहिल्या मिश्र

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कंजी आँखों वाली कैंचा
कल से ही
कल के नीचे खड़ी
उसे देखने में मग्न थी।
उसकी कंजी आँखों में
सवालों का जलजला-सा
उठ रहा था।
उसके फूस की झोपड़ी के आगे
यह पानी का जादू कैसे?

समझाने वाले
अपनी इकलौती लोकतंत्री
नकाब के साथ
विकास का पाठ पढ़ाकर
अपनी समझदारी
पर इतरा रहे थे।

अपने
नएपन की तथाकथित
तानाशाही पर्दे के पीछे से
उसके भोलेपन
सहज संस्कृति
युगीन सभ्यता
के साथ बलात्कार कर
मुस्कुरा रहे थे।

समाजवाद। उन्नति
इसके कोरे हिसाब ने
क्या दिया? क्या नहीं?
उसे क्या पता?
किन्तु
उससे लेने का हिसाब
इसे कौन रखेगा?
यह लाल फ़ीताशाही तो
अपने ही मन की
मानती है
और मनवाती भी है।

फिर
उसे कौन समझाए कि अब
तुम वही कंजी आँखों वाली
कैंचा नहीं रही।
यूँ टुकुर-टुकुर
कल को देखते रहना
तुम्हें शोभा नहीं देता।
तुम अब विकास के नारे में
बुनी एक नई नारी हो
जो आधुनिकता की पहचान है।

नादानियाँ छोड़ो।
हमारे क़दम में क़दम मिलाकर
आगे बढ़ो।
यही तुम्हारी परिणिती है।
कैंचा तुम अब काँचन हो।
भूल जाओ उस कंजी आँखों वाली कैंचा को।
तुम्हारा तुम ए पाँव तले रौंदने भर को नहीं है
आपनी कंजी आँखेँ, मेरे
चेहरे पर मत गड़ाओ,

ये सवाल बनकर छीलते हैं।