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कंधों पर सिर लिए हुए हम / नईम
Kavita Kosh से
कंधों पर सिर लिए हुए हम
अंतरिक्ष में उपग्रह जैसे
घूम रहे हैं।
किसने गति, यति और ताल से
कब, क्यों, कहाँ उछाला होगा?
कहाँ विगत होगी इस सबकी,
इसका कहाँ हवाला होगा?
महाशून्य में हाथ मारते
ज्यों संग्रह के विग्रह जैसे
घूम रहे हैं।
कहाँ गिरेंगे, किस ग्रह से हम,
अनायास ही टकराएँगे?
ख़तरों से कब तक खेलेंगे?
खुद को कब तक दुहराएँगे?
आग्रह हो न सके जीवन-भर
स्वजनों बीच दुराग्रह जैसे
घूम रहे हैं।
हम हैं कहीं, हमारे सारे
संचालन के सूत्र कहीं हैं।
लाख करें हम हाँ-हाँ लेकिन
सूत्रधार की नहीं-नहीं है।
अपनी क़िस्मत के खानों में
शनि ग्रह जैसे
घूम रहे हैं।