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कई-कई दिन / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
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कई-कई दिन।
मेले में
मन न लगे, और
अकेले जी ऊबे,
वहाँ निहारूँ अधिक
जहाँ रवि
तनिक-तनिक डूबे-
किरण लिए
अनगिन।
जल में पड़ी
वृक्ष-छाया को
आँखों मकें रोपूँ
सागर का विस्तार-
उठाकर, गागर को सोंपूँ,
बैठा रहूँ
निहारूँ
जल में मारूँ-
कंकड़ियाँ-
गिनगिन।