कई नगर थे जो हमें / अज्ञेय
कई नगर थे
जो हमें देखने थे।
जिन के बारे में पहले पुस्तकों में पढ़ कर
उन्हें परिचित बना लिया था
और फिर अखबारों में पढ़ कर
जिन से फिर अनजान हो गये थे।
पर वे सब शहर-
सुन्दर, मनोरम, पहचाने
पराये, आतंक-भरे
रात की उड़ान में
अनदेखे पार हो गये।
कहाँ हैं वे नगर? वे हैं भी?
हवाई अड्डों से निकलते यात्रियों के चेहरों में
उन की छायाएँ हैं :
यह : जिस के टोप और अखबार के बीच में भवें दीखती हैं-
इस की आँखों में एक नगर की मुर्दा आबादी है;
यह-जो अनिच्छुक धीरे हाथों से
अपना झोला
दिखाने के लिए खोल रहा है,
उस की उँगलियों के गट्टों में
और एक नगर के खँडहर हैं।
और यह-जिस की आँखें
सब की आँखों से टकराती हैं, पर जिस की दीठ
किसी से मिलती नहीं, उस का चेहरा
और एक क़िलेबन्द शहर का पहरे-घिरा परकोटा है।
नगर वे हैं, पर हम
अपनी रात की उड़ान में
सब पार कर आये हैं
एक जगमग अड्डे से
और एक जगमग अड्डे तक।
4 अक्टूबर, 1970