कई बार पढ़ी गई किताब / आरती तिवारी
तुम फिर मुझे पढ़ रही हो
और बिल्कुल वैसे ही
जैसे पहली बार
जब तुम्हारी नाज़ुक गुलाबी उँगलियाँ
पलटती थीं मेरा एक पन्ना
और नशीली आँखें
गड़ी रहतीं थीं मुझ पर
मैं सिहर-सिहर जाती थी
जब कहानी की एक नायिका
प्रताड़ित होती
और तुम तड़प उठतीं
भींच लेती मुट्ठियाँ
और तुम्हारी आँखों के सैलाब
बेताब हो जाते
ये दुनिया बदल डालने को
तुम वो पृष्ठ बार बार पढ़तीं
जहाँ इनकार कर देती है नायिका
बिस्तर पे बिछी,एक बासी चादर बनने को
चौंक गईं न
ये वही मोरपंख है
हाँ तुम्हारा बुकमार्क
और ये धूसर धब्बे
तुम्हारे सूखे हुए आँसू
जो नायिका के मार दिए जाने के दुःख में इस पृष्ठ पर
एक भावांजलि में
चस्पां हुए आज भी
अपनी नमी दर्ज़ करा रहे हैं
इतिहास में
तुम्हे याद है न
जब तुमने मन ही मन खाई थी ये कसम
तुम नहीं मानोगी हार
ज़ुल्म से,ज़ोर से या छल से
और आज मैं तुम्हारे हाथों में हूँ
हूबहू वही हो
वे ही गुलाबी उँगलियाँ
हाँ बालों में हल्की सफेदी और पतलापन
छरहरी काया,बदल गई भरे हुए जिस्म में
पर आँखों में वही आग
और चेहरे पे वही मासूमियत
हाँ जब मेरे प्रकाशन का
पहला वर्ष था
तुम्हारी उम्र का उन्नीसवाँ
हाँ हम दोनों युवा थे
भरपूर अंदर से और बाहर से भी
और आज मैं भी आ गई हूँ
कुछ चर्चित किताबों के बीच
और तुम भी जी रही हो
अपनी दूसरी पारी को सफल होके
मैं कई कई बार पढ़ी गई
कई कई चाहने वालों द्वारा
सुनो,पर वैसे नही
जैसे तुमने पढ़ा था मुझे
और जी ली एक उम्र
मुझे ही पढ़ते हुए