कक्षा की लड़कियाँ / नेहा नरुका
कक्षा में लड़कियाँ आती हैं,
ऐसे आती हैं जैसे आई हों राशन कार्ड से गेहूँ-चावल लेने
आई हों जैसे पण्डाल में बैठे किसी बाबा से कोई कथा-वथा सुनने
आई हों पड़ोसी के घर बिलौआ में कुछ देर बेमन बैठने
मतलब वे बहुत कुछ लगती हैं पर
कक्षा में आई हुईं छात्राओं की तरह बहुत कम लगती हैं
यहाँ बोर्ड पर कोई महत्वपूर्ण अवधारणा चल रही होती है
और वहाँ पंक्ति में बैठी लड़कियों की सुई समय के इर्दगिर्द घूमती है
'मेडम बस निकल जाएगी।'
कुछ लड़कियां उठकर चली जाती हैं
उनकी बेचारगी देखकर ऐसा लगता है
जैसे उन्हें कक्षा की जगह पिंजरे में रखा गया है
और उनके पंख पक्षी की तरह
बाहर जाने के लिए फड़फड़ा रहे हों
मगर कक्षा से निकलते ही क़ैदी लड़कियाँ उड़ती नहीं
चुपचाप एक सीध में भेड़ों की तरह चलने लगती हैं
चाहे कक्षा में चल रहा हो
उनके जीवन का कितना ही ज़रूरी फ़लसफ़ा
कुछ भी उनके बाहर खड़े पिता या भाई या मित्र से ज़रूरी नहीं होता
'आख़िर तुम लोग ये साहित्य से बी०ए० कर ही क्यों रही हो ?'
'दिनभर क्या करती हो ?'
'थोड़ा-बहुत पढ़ लिया करो'
'पढ़ाई ही काम आती है'
ऐसी हर सलाह पर लड़कियाँ हंसती हैं और लगातार देर तक हंसती रहती हैं
तब लगता है शायद अध्यापन के कौशल में ही कमी है
वरना लड़कियां क्यों हंसती ?
आए दिन कक्षा में विडम्बना, विरूपता,
व्याकुलता, बैचेनी पसर जाती है
अधिकतर लड़कियां गाँव से आती हैं
वे बारिश में बारिश से दुखी होती हैं
सर्दी में रात से
गर्मी में लू से
उनके दुःख के कारण भी उनकी तरह ही बहुत पिछड़े हैं
अधिकतर लड़कियाँ कक्षा पाँच के बाद रेगुलर स्कूल नहीं गई हैं
कारण पूछो तो कहती हैं— छठवीं का स्कूल
दूसरे गाँव में था कैसे जातीं ?
कोई-कोई ऐसी भी है जो सीधे पाँच से आठ में आ गई है
कुछ ने अब तक के जीवन में केवल प्रश्न-उत्तर याद किए हैं
कुछ नक़ल करके पास होती आई हैं
कैसे होती आई हैं उन्हें ख़ुद भी नहीं पता
कभी-कभी लगता है लड़कियाँ अपना पूरा सच बताना नहीं चाहतीं
वे जितना बोलती हैं, उससे ज़्यादा डरती हैं
और जितना डरती हैं, उससे ज़्यादा कमज़ोर दिखती हैं
पेपर आते हैं तो कक्षा की लड़कियाँ कॉलेज़ के चक्कर काटने लगती हैं
किताब, कुंजी और इम्पोर्टेण्ट प्रश्नों के निहोरे करने लगती हैं
मगर कॉलेज़ की लाइब्रेरी में भी उनके हिसाब की
कोई किताब नहीं पाई जाती है
लाइब्रेरियन चिढ़-चिढ़ के कहता है —
'सिर पर चढ़ गई हैं, किताब का नाम तक नहीं जानतीं,
किताब इश्यू कराने आ जाती हैं
और कुछ कहो तो लड़ने लगती हैं ।
इससे अच्छा तो गोबर पाथें, खेती करें...'
एक लड़की भी चिढ़ कर कहती है —
'वही पाथकर आ रहे हैं सर, जाकर फिर करेंगे कमाई,
आप रक्खे रहो अपनी किताबें...'
'दे दो न कुछ...'
'क्या दे दें मेडम कुंजी और किताबों में अन्तर तक नहीं जानतीं...'
ढूँढ़कर एक आधुनिक कहानियों की किताब दे दी है
लड़कियाँ कह रही हैं,
वही देना, मेडम, जो परीक्षा में आए,
हम ज़्यादा नहीं पढ़ सकते
ज़्यादा तो ऐसे कह रही हैं जैसे न जाने कितना पढ़ती हों
क्या पता पढ़ती हों ?
कहती हैं — 'सरकारी नौकरी की तैयारी के लिए
कुछ-कुछ पढ़ते रहते हैं, मेडम'
इसके अलावा झाड़ू, बर्तन, कपड़े, रोटी के अलावा
खेत पर काम, दुकान पर मदद... ये सब करती हैं कक्षा की लड़कियाँ
कभी-कभी लगता है उनके सिर पर रखे घड़े निरे ख़ाली हैं
और कभी लगता है कुछ बूँद जल है तली में
यूँ बूँद-बूँद जल से भी भर सकता है उनका घड़ा
पर कैसे ? कहाँ ? और कब तक ?
मार्कशीट हाथ में आने के बाद
फिर देखने को भी नहीं मिलेंगीं कक्षा की लड़कियाँ ।