भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कट्टी / हेमन्त देवलेकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब तू कट्टी हो जाती है
मिठास खट्टी हो जाती है।

गुस्से में आग बबूला हुई
जलती भट्टी हो जाती है।

खिलौनों के नन्हें दिल दल देती
चलती घट्टी हो जाती है।

चिड़ियों-सी चहचह काफू़र हुई
मुंह पर पट्टी हो जाती है।

मचलकर ज़मीं पर ही लोट गई
धूला-मट्टी हो जाती है।