भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कडुवे सीमांत पर / कैलाश वाजपेयी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नीले भविष्य के कडुवे सीमांत पर
अब जहाँ हूँ मैं
मैंने तुम्हें खो दिया है
चिटखती है आग और चिनगारी अलग
नई सृष्टि रच लेती है
खो दिया
मैंने तुम्हें खो दिया है
मटमैले वर्षों के धारदार पहिये
रौंद चुके होंगे उस पिंड को
मैंने जिसे पीछे कल छोड़ा था
याद नहीं मुझे उस अनात्म की
चाँदी की पिघली सलाखें गिराकर
तुमने जिस बदहवास प्रणयी का कंधा
झकझोरा था।

उजले व्यतीत के फीके देहांत पर
अभी जहाँ हो तुम
उस सबसे दूर दूर दूर अब
जहाँ कहीं हूँ मैं
मैंने तुम्हें खो दिया है
सन्नाटा छोड़कर

रात के वक्ष पर
रोएँदार अंधकार सोया है
पत्थर - निस्पंद मैं
उस वंध्या रात की
रीढ़ में चिपका हूँ
और
भोजपत्रों की राख से ढँका हुआ
मेरा कंकाल
रक्षित है कहीं किसी
अगली शताब्दी में

मुझे एक और मृत्यु -
प्रतीक्षा में ढोनी है
(पूर्व मृत्यु)

अब भी मैं क्योंकि
उस कोख के अयोग्य हूँ
जन्म जहाँ वर्षों में भटककर
एक बार आता है।