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कथा यात्रा-1 / आभा पूर्वे

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माँ गंगे
क्या तुम महानदी भर हो
या सचमुच में माता हो ?
मुझे तो यही ज्ञात है कि
तुम हिमालय की बड़ी बेटी हो
भीष्म की माता हो
भगवान शिव की अद्र्धांगिनी हो ।

गंगा
सिर्फ नदी नहीं है
माता है
महादेवी है
कहीं दो भुजाओं में
कहीं चार भुजाओं में सुशोभित ।

माँ
भारत को निर्मल
पुनीत बनाए रखने के लिए ही
तुमने नदी का रूप
धारण किया है
हाँ नदी रूप में ही निकलती हो
उत्तरखण्ड के गोमुख से
साढ़े बारह हजार से भी
कहीं अधिक ऊँची
पर्वत भूमि से
और फिर निरन्तर
बहती ही रहती हो
ढाई हजार किलो मीटर
से भी अधिक की
यात्रा तय करती हो
अपने साथ
कई-कई नदियों को
साथ लिए
और तब तक
बहती रहती हो
जब तक कि
तुम्हारी वेगवान धारा
बंगाल के समुद्र के साथ
एक न हो जाती है ।
माँ गंगे
किसे नहीं आश्चर्य होगा
यह जान कर कि
जहाँ से तुम निकलती हो
वहाँ पर तुम्हारी गहराई
बस पन्द्रह इंच से ज्यादा नहीं है
और इतनी पतली कि
दो गज भी मुश्किल से लगती हो
वह तो तुम्हारी काया
तब कुछ चैड़ी होती है
जब कनखल में
तुम्हारी दो धाराएँ
मंदाकिनी और अलकनंदा
पर्वतों से नीचे उतरती हैं
तभी तुम भगीरथी कहाती हो
तब तुम्हारा रूप
कितना निर्मल होता है
कितना स्वच्छ
फेनिल दूध को
लज्जित करने वाला ।

माँ गंगे
क्या है ऐसा तुम्हारे जल में
कि पाप भी
पुण्य में बदल जाता है
पंडित कहते हैं
तुम्हारे जल में
बैव बैक्टिरियो फेज नामक
विषाणु होता है
जो अन्य खतरनाक विषाणुओं को
निगल जाता है ।

मुझे नहीं ज्ञात
मुझे तो सिर्फ
इतना मालूम है कि
तुम्हारा जल
जल नहीं
धरती पर बही
अमृत की धारा है
जो निरन्तर बहती ही रहती है
हरिद्वार से ले कर
गंगासागर तक
माँ
तुम कोई ऐसी-वैसी नदी नहीं
देवनदी हो
इसी से तो
तुम जिधर-जिधर से गुजरी हो
वहाँ-वहाँ खड़े हो गये हैं
देवताओं के नगर
देवताओं के घर ।

माँ गंगे
तुमने देखे हैं
अपने किनारे-किनारे
बसने वाली अनेक सभ्यताओं को
अनेक साम्राज्यों को
उन्हें बनते ही नहीं देखा है
उन्हें उजड़ते भी देखा है
तुमने धर्म का उत्कर्ष भी देखा है
धर्म में आते पाखण्ड को भी
और उस पाखण्ड के विरोध में
आक्रोश के उठते हुए स्वर को भी ।

कभी तुम्हारे ही किनारे
स्वामी दयानन्द ने
धर्म के पाखंड के विरोध में
अपना ध्वज लहराया था
तुम्हारी लहरों में
उस विरोध की गूंज
अब भी उसी तरह गूंज रही है ।

माँ गंगे
तुम्हारी निर्मल लहरें
सिर्फ लहरें ही नहीं हैं
ये इतिहास हैं
भारतीय संस्कृति और सभ्यताओं के ।

कोई इन लहरों में
सुन सकता है
हस्तिनापुर की कथा
जो तुम्हारे ही तट पर
कभी बसा था ।

कौरव-पाण्डवों की
कितनी-कितनी कथाएँ
तुम्हारी लहरों से
आज भी सुनी जा सकती हैं
तुममें यमुना का मिलना
दो बिछुड़ी बहनों का मिलना लगता है ।

कितने-कितने राजवंशों की कहानियाँ
तुम्हारी धाराओं के साथ ही
बहती रहती है
उनमें मौखरी राजाओं की
कहानियाँ भी है ।
गुप्तवंश की ही नहीं
नंदवंश
मौर्यवंश
और पालवंश के
उत्थान-पतन को भी
तुम्हारे तटों ने
तुम्हारी लहरों ने देखा है ।

हे माता गंगे
जहाँ तुमसे यमुना मिलती है
वह सचमुच में कितना पवित्रा स्थल है
तभी तो वह प्रयाग है
जहाँ भगवान राम ने
कभी भारद्वाज से उपदेश सुने थे
और जहाँ कभी
सम्राट हर्षवर्द्धन
हर पाँच सालों के बाद
अपनी सम्पत्तियों का दान
प्रजाओं के बीच
खुले हाथों से किया करते थे
तब यज्ञों से उठता पवित्रा धुआँ
सम्पूर्ण भारत को
सुगन्धित किया करता था
हजारों हाथी-घोड़ों के निनाद
भक्तों का जय जयकार ?
इसकी कथाएँ
सिर्फ इतिहास में ही
नहीं लिखी हुई हैं ।

माँ गंगे
हिमालय से उतरने के बाद
जब तुम काशी पहुँचती हो
और अर्द्धचन्द्रमा का रूप
ग्रहण करती हो
तब तुम्हारे रूप की सुन्दरता का
वर्णन सुकवि से भी संभव नहीं ।

काशी को तुमने
कितना पवित्रा बना दिया है
कितने-कितने महान यज्ञों को
यहाँ होते हुए
तुम्हारी लहरों ने देखा है
इसका ही प्रमाण देता
यहाँ दशाश्वमेघ घाट है
तुम्हारी महिमा को
सिर्फ दशाश्व घाट ही नहीं कहता
हरिश्चन्द्र घाट
भाड़वाला घाट ?
जलशायी घाट
मणिकर्णिका घाट
अपने-अपने सीने में
इतिहास के बन्द पन्नों को
समेटे हुए हैं
जिन्हें ज्ञात है, वे पढ़ते हैं
और भारतवासी होने का गौरव
अनुभव करते हैं
जहाँ स्वर्ग की नदी गंगा उतरी है
गंगा, जो कुंभ मेला को पवित्रा करती है
गंगा, जिसके बिना कुंभ मेला
बिना आत्मा का शरीर ही ।

यही गंगा
जब मगध में आती है
तो तब इसकी लहरों की चंचलता
और भी बढ़ जाती है
चन्द्रगुप्त मौर्य की
शूरता को याद कर
भिक्खु सम्राट अशोक को याद कर
महात्मा बुद्ध की स्मृति से
तब गंगा की लहरें
साहित्य की वाणी बन जाती हैं ।
मगध की गंगा में
अश्वघोष
महाकवि भास
वाणभट्ट और चाणक्य की वाणियाँ
सोती-जागती हैं ।

यहीं आ कर गंगा
अपनी काया को फैलाने लगती है
सोन नदी को गले लगा कर
आगे बढ़ जाती है
अंगप्रदेश की निर्मल भूमि की ओर
माँ गंगे
तुम्हें अंगप्रदेश इतना प्रिय क्यों है
यह मुझे ज्ञात है,
मुझे ही क्यों
सम्पूर्ण भारत को ही ज्ञात है
कि अंग महाजनपद
तुम्हारा नैहर भी है
यहाँ तुम्हारा
दूसरा जन्म हुआ था
जब अंग के ऋषि जद्दु ने
अँगुली में रखकर
तुम्हें उदरस्थ कर लिया था
तब भगीरथ के अनुनय पर
उन्होंने तुम्हें अपनी जंघा से
बाहर निकाल दिया था
इस तरह तुम्हारा नाम तब से
जाद्दुवी भी हो गया है ।