कथा यात्रा-2 / आभा पूर्वे
हे माता जाद्दवी
अंगप्रदेश में एक बार नहीं
दो बार नहीं
तीन-तीन बार उत्तरवाहिनी होती हो ।
कौन थी
सम्पूर्ण जम्बू द्वीप में
देवदत्ता-सी सुन्दरी रूपाजीवा ?
उर्वशी-रंभा भी ईष्र्या करे
देवदत्ता के रूप से ।
वही देवदत्ता
कभी पाटलिपुत्रा की
गंगा के किनारे
गंगा की लहरों में
अपनी छवि को निहारा करती थी
घंटों बैठ कर ।
देवदत्ता ही क्यों
कोशा
और उसकी पुत्राी-उपकोशा भी
जो अपने अपूर्व रूप
अपूर्व यौवन
अपूर्व धन-सम्पत्ति के लिए
सम्पूर्ण जम्बू द्वीप में
विख्यात थी ।
तुम्हारे तटों पर
जब विहार करती होंगी
तब सम्पूर्ण पाटलिपुत्रा ही
पुष्पपुर बन जाता होगा ।
कोशा
जिसके बारे में यह कथा
जगतप्रसिद्ध है कि
जब
सिंह गुहावासी नाम के मुनि
उसके पास पहँुचे थे
यह बताने कि
अप्सराओं
सुन्दरियों के रूप का जादू
विरागियों को नहीं बाँध सकता
लेकिन उस मुनि को
यह कहाँ ज्ञात था
कि कोशा
धरती की उर्वशी है ।
बस कोशा को
देखने भर की देर थी
और
सिंह गुहावासी
कोशा के रूपजाल में बद्ध हो कर
उसके चरण सेवक हो गये ।
माँ गंगे
यह कहानी भी
मैंने तुम्हारी लहरों से ही
सुनी है ।
पायलों-कंगनों की ही नहीं
तलवारों की झनकार भी
तुम्हारी लहरों में गूंजती है ।
हे माँ गंगे
तुम्हारी रेतों में
तुम्हारी लहरों से
तुम्हें छू कर
बहने वाली हवाओं से
तुम्हारे जंगलों से
मैंने एक कहानी सुनी है
कहानी गुरु गोविन्द सिंह की
जो पाटलिपुत्रा में
प्रकट हुये थे ।
जैसे तुम
स्वर्ग को छोड़ कर
अचानक ही धरती पर
प्रकट हो गयी थी
धरती के पुत्रों का दुख
हरने के लिए,
ठीक वैसे ही
तुम्हारे फैले आँचल के
एक पवित्रा छोर पर
प्रकट हुये थेµगुरु गोविन्द सिंह ।
हिन्दु धर्म के रक्षार्थ
जिन्होंने अपने चार-चार पुत्रा
खो दिए
लेकिन अपने संकल्प से
पीछे नहीं हटे
देश के पूरब पश्चिम
दक्षिण-उत्तर तक गये
धर्म की रक्षा के लिए
महाजनपद मगध से लेकर
महाजनपद अंग तक ।
हे माता गंगा
तुम्हारी लहरें
गुरु गोविन्द सिंह की यशोगाथा
तेज-तेज स्वर में
गाती हुई बहती रहती हैं
अंगप्रदेश के मणिहारी घाट तक ।
हे पतितपावनी
तुम्हारी महिमा की गाथा
मगध से लेकर अंग तक
उतनी ही विराट है
जितनी कि अंगप्रदेश में
तुम्हारे घाटो का विस्तार ।
तुम कई-कई नदियों को समेटते हुए
मोकामा तक क्या पहुँचती हो
तुममें अंगप्रदेश की महिमा
दूध-पानी की तरह
एक होने लगती है ।
मोकामा यानी मगध-अंग का
मिलन-स्थल
यानी मगध अंग की सीमा-रेखा
मोकामा के सामने
गंगा के बायें भाग में
अंगप्रदेश का सिमरिया घाट
जहाँ कातिक के महीना में
महान धार्मिक मेला लगता है
सिमरिया का यह कार्तिक मेला
अंगप्रदेश का कुंभ मेला ही तो है
इसी सिमरिया ग्राम में
ओज के कवि दिनकर का
जन्म हुआ था
जिन्होंने तुम्हारी धारा की तरह
अपनी कविताओं को
ओज और लय से बद्ध किया था
लगता है, कि
हे गंगे
तुम्हीं दिनकर की कविताओं में
समा गई हो ।
मगध और अंग की
भूमि को हरियाली से
भरनेवाली, हे माँ गंगे
तुम मोकामा से आगे क्या बढ़ती हो
तुममें कई-कई नदियों को
अपने में समेटे
क्यूल नदी भी आखिर
तुममें समा जाती है ।
कभी ऐसा भी समय था
जब कई-कई नदियों का पानी
मोकामा की झील में
इकट्ठा होता था
और वहीं से एक बड़ी नदी बनकर
गंगा में समा जाता है
जो मगध-अंग की सीमा को
अलग करता था ।
जहाँ मगधराज बिम्बसार
के समय में
मगध अंग की सेनाओं का
भीषण युद्ध हुआ था,
और पराजय के कारण
अंग राज्य के अन्तिम
शासक ने
महानदी में कूदकर
प्राणों की आहुति दे दी थी ।
यह कथा भी
तुम्हारी लहरों पर
अभी तक दर्ज है ।