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कथित विवेकी जीवन / हरीश प्रधान

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अब तो सांसों का मज़दूर हो गया
जो कुछ जिया, भुला देना ही
लगता आज ज़रूर हो गया
जीने को जी लेते हैं पर
जीवन सचमुच दूर हो गया

कैसा यह संयोग, देखकर
अनदेखा करना होता है
भौतिक जीवन के प्रवाह में
अनजाने बहना होता है
कृत्रिमता की खोल चढ़ाए
अहम् बोलता रहता हर क्षण
भीतर चाहे घुटन भरी हो
बाहर मुस्‍काना होता है
दुनियायी व्यापार चलाने को
जीवन मजबूर हो गया
जीने को जी लेते हैं पर
जीवन सचमुच दूर हो गया

कौसे समझें साथ तुहारा
केवल एक भटकता सम था
साँसो से साँसों का संगम
उठती हुई उमर का भ्रम था
सच चाहे जो कुछ हो, पर
तुम कहते हो मान रहा हूँ
निश्चल यौवन के वह दिन सब
महज भुलावे का ही क्रम था।
अब विडम्‍बनाओं से ही
जीवन सारा भरपूर हो गया
जीने को जी लेते हैं पर
जीवन सचमुच दूर हो गया

दोष किसे दें, भला बताओ
ग़लती अपनी ही सारी थी
घिरे ऊपर चकाचौंध पर
आकर्षण की बीमारी थी
अनचाहे ही वृत्‍त खींचकर
घेर लिया उसमें अपने को
जीवन एक आस्था समझा
भावुक मन की लाचारी थी
कथित विवेकी जीवन अब तो
साँसो का मज़दूर हो गया
जीने को जी लेते हैं, पर
जीवन सचमुच दूर हो गया!