भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कबाड़ / देवी प्रसाद मिश्र
Kavita Kosh से
घरों से कूड़ा ले जानेवाला, न चलती बैटरियाँ
और न चलती बच्चों की साइकलें लेकर जा रहा है,
फ़र्नीचर, जिन पर बैठकर कमज़ोर लोगों के विरुद्ध फ़ैसले लिए गए,
वे मृत्यु की तरह पड़े हुए हैं, उन्हें ले जाता है एक लँगड़ाता हुआ आदमी ।
न चलती राजनीति और न चलता समाज
और न चलता यह ढाँचा उसके कबाड़ का हिस्सा हो,
मेरी तरह आप यह चाहें या नहीं, किसी दिन वह लँगड़ाता हुआ आएगा ज़रूर
फटे पुराने कपड़ों में
और सदन के महाद्वार पर दिखेगा कि इस कबाड़ को ले जाने आया हूँ ।
पता नहीं, इसे वह रिसायकिल करेगा या जला देगा ।